Naga Sadhu in Mahakumbh: The thrilling world of Naga Sadhus is difficult…! Along with 'celibacy' one has to do 'gender deactivation'...watch video hereNaga Sadhu in Mahakumbh
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नई दिल्ली, 20 जनवरी। Naga Sadhu in Mahakumbh : महाकुंभ में नागा साधुओं का एक रोचकता जगाता है। आम लोगों के बीच उनको लेकर भारी जिज्ञासा भी जगाते हैं। नागा साधु एक सैन्य पंथ है और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे हैं। त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से वे अपने सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं। ये साधु प्रायः कुम्भ में दिखायी देते हैं। कोई कपड़ा ना पहनने के कारण शिव भक्त नागा साधु दिगंबर भी कहलाते हैं, अर्थात आकाश ही जिनका वस्त्र हो।

कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे ये साधु कुम्भ मेले में सिर्फ शाही स्नान के समय ही खुलकर श्रद्धालुओं के सामने आते हैं। आमतौर पर मीडिया से ये दूरी ही बनाए रहते हैं। नागा साधुओं को लेकर कुंभ मेले में बड़ी जिज्ञासा और कौतुहल रहता है। इनके आश्रम हरिद्वार और दूसरे तीर्थों के दूरदराज इलाकों में हैं जहां ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं।

बनने से पहले

नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूँ ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर योग्य व्यक्ति को ही प्रवेश देता है।

पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है। अन्तिम प्रक्रिया महाकुम्भ के दौरान होती है जिसमें उसका स्वयं का पिण्डदान तथा दण्डी संस्कार आदि शामिल होता है। उनके इस अवस्था तक पहुंचने की प्रक्रिया है? आखिर कोई साधु जब नागा बनता है तो इसकी दीक्षा कैसे लेता है?

इन सवालों के जवाब कई किताबों और मीडिया रिपोर्ट में मिलते हैं। हालांकि सभी के पास सिर्फ उतनी ही जानकारी है, जितना उन्हें किसी अखाड़े की ओर से जानकारी में बता दिया गया। मशहूर इतिहास लेखक सर यदुनाथ ने इस विषय पर खूब लिखा है। इसी तरह पत्रकार और लेखक धनंजय चोपड़ा ने भी अपनी किताब (भारत में कुंभ) में इस विषय पर डिटेल में बात की है।

नागा संन्यासी बनने की कठिन है प्रक्रिया

किताब की मानें तो नागा संन्यासी बनना, यानी बेहद ही कठिन प्रक्रिया और साधना से गुजरना। यह पूरी प्रक्रिया कोई एक दिन, एक साल या एक बार की बात नहीं है, बल्कि ये सभी कुछ वर्षों की साधना की सतत प्रक्रिया है। इसमें कुछ विधान तो इतने कठिन हैं, कि उनके बारे में जानकार आम आदमी की रूह कांप जाए। नागा साधु बनने की प्रक्रिया में लिंग निष्क्रिय (तंगतोड़) किया जाता है, इससे पहले एक क्रिया पंचकेश (शरीर के सभी भागों के बाल उतारना) होती है। ब्रह्म मुहूर्त में 108 बार की डुबकी और फिर विजया हवन भी इसमें शामिल है।

ब्रह्मचर्य का पालन है पहली शर्त

नागा साधु बनने के लिए जरूरी है इच्छाशक्ति, लेकिन सिर्फ इच्छा ही काफी नहीं है। जो भी कोई नागा संन्यासी बनने का इच्छुक होता है, उसे पहले दो-तीन वर्षों तक अखाड़े के इतिहास, परंपरा आदि को ठीक तरीके से समझना होता है। गुरु की सेवा, अखाड़े के कार्यों में सहयोग और सहभागिता बेहद जरूरी होती है। इस दौरान प्रवेशी पर समय-समय पर नजर भी रखी जा रही होती है कि कहीं वह मोह में भटक तो नहीं रहा है। इन वर्षों में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है।

कई बार घर लौटा दिए जाते हैं साधु

2-3 साल को इस दौर में अगर यह पाया जाए कि साधु नियम मानने में कोताही बरत रहा है, या फिर भटक रहा है तो उसे परिवार में वापस लौट जाने को कह दिया जाता है। अधिकांश अखाड़े तो उसी समय कई इच्छुक लोगों को बार-बार वापस होने के लिए कहते हैं, जब वह संन्यास लेने के लिए अखाड़े में पहुंचते हैं। फिर भी वह अपने फैसले पर अडिग रहता है तो परिवार की सहमति के बाद ही उसे अखाड़े में रहने और सेवा की अनुमति दी जाती है।

यहां से शुरू होते हैं असली संस्कार

3 साल के इस परीक्षण और जांच की प्रोसेस के बाद सफल व्यक्ति को ‘महापुरुष’ घोषित करके उसका पंच संस्कार किया जाता है। इस प्रक्रिया में भगवान शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश को गुरु के रूप में स्थापित किया जाता है। व्यक्ति को अखाड़े में उसके गुरु द्वारा नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत और अन्य नागा संन्यासियों के प्रतीक चिह्न दिए जाते हैं।

गुरु काटते हैं शिष्य की शिखा

इस दौरान गुरु अपनी प्रेम कटारी से शिष्य की शिखा (सिर के बाल या चोटी) काटते हैं। महापुरुष बनाए जाने से पहले गुरु शिष्य से तीन बार सांसारिक जीवन में लौटने का आग्रह करते हैं। यदि वह लौटने से मना कर देता है, तो उसे संन्यास जीवन की प्रतिज्ञा दिलाकर महापुरुष बना दिया जाता है।

अगले चरण में होता है पंचकेश

जब संन्यासी महापुरुष बन जाते हैं तो फिर अगली प्रक्रिया ‘अवधूत’ दीक्षा की होती है। यह प्रक्रिया बेहद लंबी और मुश्किल है। जिस दिन से ये प्रोसेस शुरू होनी होती है, उस दिन की शुरुआत सुबह ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4 बजे से) होती है। नित्यकर्म और पूजा-पाठ के बाद सभी अपनी-अपनी मढ़ियों में इकट्ठा होते हैं। यहाँ से वे अपने-अपने गुरु और महंत के नेतृत्व में नदी (प्रयाग में संगम तट, हरिद्वार में गंगा तट आदि) पर कतार में खड़े होते हैं। यहां पर नाई पंचकेश संस्कार के तहत सभी के सिर, मूंछ, दाढ़ी और शरीर के बाल हटा देते हैं, जिससे उन्हें नवजात शिशु के समान कर दिया जाता है।

17 पिंडदान करते हैं संन्यासी

मुंडन के बाद ये नदी में स्नान करते हैं और अपनी पुरानी लंगोटी त्यागकर नई लंगोटी धारण करते हैं। गुरु इन्हें जनेऊ पहनाते हैं और दंड-कमंडल और भस्म भी देते हैं। इसके बाद इनसे 17 पिंडदान करवाया जाता है, 16 उनके पूर्वजों के लिए और एक स्वयं का. इस पिंडदान के साथ ही वे खुद को मृत मान लेते हैं, उनका पूर्व जन्म समाप्त हो जाता है, और वे सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। नए जीवन का संकल्प लेकर वे अपने-अपने अखाड़े में लौटते हैं।

108 डूबकियों के साथ बनते हैं अवधूत

अखाड़े में देर रात को विजया हवन होता है। इसके बाद मध्य रात्रि में आचार्य, महामंडलेश्वर या पीठाधीश्वर इन्हें दीक्षा देते हैं और गुरुमंत्र देते हैं। गुरुमंत्र को प्रेयस मंत्र भी कहा जाता है। इसे देने से पहले अंतिम बार सांसारिक जीवन में लौटने की सलाह दी जाती है। गुरुमंत्र प्राप्त करने के बाद ये सभी धर्म-ध्वजा के नीचे बैठकर “ऊँ नमः शिवाय” का जाप करते हैं। सुबह चार बजे इन्हें फिर से नदी तट पर लाया जाता है, जहां ये 108 डुबकियां लगाकर स्नान करते हैं और दंड-कमंडल का त्याग कर देते हैं। यहां से लौटकर वे अपने गुरु से अपनी चोटी कटवाते हैं। इसी के साथ सभी महापुरुषों का अवधूत संस्कार पूरा हो जाता है। ‘अवधूत’ बनने की इस 24 घंटे की प्रक्रिया के दौरान सभी को उपवास रखना पड़ता है। अखाड़े में अवधूत संन्यासियों को विशेष सम्मान और स्थान दिया जाता है।

नागा बनने की ओर अगला कदम

इन्हें अखाड़े में प्रवेश के बाद रुद्राक्ष की माला पहनाई जाती है। यदि कोई साधु सांसारिक जीवन की ओर झुकाव दिखाता है, तो उसे कड़े अनुशासन और निगरानी में रखा जाता है। यह निगरानी शिविरों में होती है, जहां उनकी योग्यता और निष्ठा परखी जाती है। जो इस प्रक्रिया में खरा उतरता है, उसे नागा संन्यासी घोषित कर दिया जाता है। अवधूत बनने के बाद साधु को ‘दिगंबर’ दीक्षा लेनी होती है। यह दीक्षा कुंभ मेले के अवसर पर शाही स्नान से ठीक पहले दी जाती है. यह प्रक्रिया बेहद गोपनीय होती है, इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है। इस प्रोसेस के दौरान भी सिर्फ वरिष्ठ साधु ही भाग लेते हैं।

लिंग निष्क्रिय करना

वरिष्ठ नागा साधु बताते हैं कि दिगंबर बनने की प्रक्रिया नए साधुओं के लिए सबसे कठिन होती हैविधि इस प्रक्रिया के तहत, साधु को अखाड़े की धर्म-ध्वजा के नीचे 24 घंटे तक बिना कुछ खाए-पिए रहना होता हैविधि इसके बाद अनुभवी साधु वैदिक मंत्रोच्चार के बीच एक विशेष प्रक्रिया को पूरा करते हैं, जिसे ‘संतोड़ा’ या ‘तंगतोड़’ कहा जाता हैविधि इस प्रक्रिया में लिंग को निष्क्रिय कर दिया जाता है।

अमृत स्नान के साथ मिलती है पूर्ण नागा की मान्यता

यह शारीरिक और मानसिक तपस्या का चरम रूप है। इस क्रिया के बाद, सभी नव नागा साधु शाही स्नान के लिए जाते हैं। इसके साथ ही उन्हें पूर्ण नागा साधु के रूप में मान्यता दी जाती है। कुंभ के बाद, ये साधु तपस्या के लिए हिमालय की ओर जाते हैं। यहां वे कठोर तप और संन्यासी जीवन के कठिन प्रशिक्षण से गुजरते हैं। यह प्रशिक्षण शास्त्र और शस्त्र दोनों का होता है। अगले कुंभ तक ये साधु वहीं रहते हैं। कुंभ में लौटने पर इन्हें नई जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं।