रायपुर, 12 अक्टूबर। Journalist Manish Gupta : मनीष गुप्ता, बस्तर की पत्रकारिता के आसमान पर चमकने वाले सितारे वरिष्ठ पत्रकार का नाम है, इनकी पत्रकारिता की चमक बस्तर के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। मनीष गुप्ता उस शख्सियत का नाम है जिसने कई मौकों पर जनहित की खबरों से सत्ता की कुर्सियां हिलाकर रख दीं। जनहित के मुद्दों की बात यहां इसलिए कही जा रही है क्योंकि मनीष गुप्ता नक्सलियों के जन अदालत और वहां किए जाने वाले हत्याओं पर खुलकर बोल रहे हैं। उनका बयान बहुत साफ और स्पष्ट है। वे कह रहे हैं कि नक्सलियों जन अदालत के नाम दहशत फैलाने और अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए नृशंस हत्याओं को अंजाम देने की व्यवस्था बना रखी है।
जन अदालत के नाम पर नक्सली, ग्रामीणों को इकट्ठा करते हैं और कई मौकों पर भाई के हाथों भाई की हत्या करवा देते हैं, पिता के हाथों बेटे की हत्या करवा देते हैं या बेटे के हाथों पिता की हत्या करवा देते हैं। और तो और मामले तो ऐसे भी हैं कि किसी परिवार के किसी ऐसे सदस्य पर आरोप है जो वहां मौजूद ही नहीं है तो उस परिवार के मुखिया या किसी दूसरे सदस्य की हत्या भी कर दी जाती है। हत्याओं के दृश्य भी कितने भयावह हो सकते हैं? इसके आगे बढ़ते हुए आप समझ सकेंगे क्योंकि लाठी डंडों से मर जाने तक पीटा जाना, छुरे या कुल्हाड़ी से काटकर तड़पा तड़पा कर मार दिया जाना? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई हत्या कितनी खतरनाक और भयावह तरीके से की जा सकती होगी ?
कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक मुखबिरी का आरोप लगाकर नक्सलियों ने जनवरी 2024 से लेकर अब तक अलग अलग नक्सल प्रभावित जिलों के 50 से अधिक ग्रामीणों की हत्याएं की हैं। इस तरह के आरोप लगाकर नक्सलियों के हाथों किए जाने वाली अधिकतर हत्याओं की तरफ देखें तो ये बात सामने आती है कि नक्सली जनअदालत लगाते हैं जहां जनता तय करती है कि जिसे नक्सली मुखबिर कह रहे हैं, जनता तय करती है कि उस व्यक्ति की हत्या कर दी जाए। जनअदालत का सीधा और स्पष्ट अर्थ यही निकलकर आता भी है कि जनता की अदालत है और जनता ही तय करती है कि क्या किया जाना चाहिए।
दूसरी तरफ़ सुरक्षा बलों के आधिकारिक बयानों और ऐसे सूत्र हैं जो बताते हैं कि नक्सली जिसे जन अदालत का नाम देते हैं, हक़ीक़त में वैसा कुछ होता ही नहीं है। बल्कि होता ये है कि अति नक्सल प्रभावित गांवों के ग्रामीणों को नक्सलियों के द्वारा एकत्रित किया जाता है, नक्सली हथियार लिए मौजूद रहते हैं, उनके कुछ साथी लाठी डंडे, कुल्हाड़ी, फरसे और छुरे रखे होते हैं जहां नक्सली अपनी दहशत बरकरार रखने के लिए किसी व्यक्ति पर मुखबिर होने का आरोप लगाते हैं और उसे बुरी तरह पीट-पीटकर मार दिया जाता है या फिर कुल्हाड़ी, फरसे या छुरे से गर्दन काटकर या घोंपकर हत्या कर दी जाती है।
बताया तो ये भी जाता है कि नक्सली ग्रामीणों के बीच यह कहते हैं कि वे जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं, सरकार ग्रामीणों के संसाधनों को, वन संपदा को लूटना हड़पना चाहती है, पुलिस कानून के नाम पर आम लोगों को नुकसान पहुंचाती है। इस तरह के हालातों से बचाने के लिए नक्सली ख़ुद को जनता के योद्धा बताते हैं। इसी मसले पर सुरक्षा बलों का आधिकारिक रुख बहुत स्पष्ट देखा गया है कि नक्सली इस तरह के पैंतरों का इस्तेमाल करके मासूम ग्रामीणों को भटकाने, डराने और आंतरिक सुरक्षा में खतरे पैदा करने के लिए करते हैं।
यहां पर माओ का वह विचार याद आ जाता है जहां माओ सत्ता को बंदूक के दम पर हथियाने की राय रखते दिखाई देते हैं ; “सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। तो माओ से एक प्रश्न यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या सत्ता तक पहुंचने का रास्ता ग्रामीणों के बीच दहशत पैदा करने वाली नृशंस हत्याओं से होकर गुज़र रहा है ? यदि माओवादी विचारधारा में वर्ग संघर्ष की बात कही जा रही होती है तो वह कौन सा वर्ग है जिसे सबसे अधिक नुकसान माओ के मार्ग पर उठाना पड़ रहा है ?
अभी बीजापुर जिले के जांगला थाना क्षेत्र के जंगल में बसे गांव पोटेनार में जिस युवक की हत्या नक्सलियों ने की है या किसी और ने अभी यह साफ नहीं है । लेकिन क्या यह ज़रूरी है कि उस युवक का नाम लिख दिया जाना चाहिए और यह प्रश्न तब उठता है जब ऐसी हत्याओं के आंकड़ों पर ध्यान चला जाता है । एक रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2024 से लेकर अब तक नक्सलियों ने 50 से अधिक लोगों की हत्याएं सिर्फ मुखबिरी के आरोप लगाकर ही किए हैं और माओवादी गतिविधियों के भारतीय इतिहास पर नज़र डाली जाए तो यह आंकड़ा कहां पहुंचता होगा, कितने मृतकों के नाम ऐसे होंगे जिन्हें वाकई पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज किया गया होगा ?
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की निगरानी में नक्सल मसले को ख़त्म किए जाने के ऑपरेशंस चलाए जा रहे हैं । इन ऑपरेशंस में सुरक्षाबलों के जवान नक्सलियों को जिस तादाद में मार रहे हैं वह आंकड़ा और केंद्र का रुख साफ साफ बता रहा है कि नक्सलियों को वाकई पाताल से भी ढूंढकर मार दिया जाएगा ! इधर राज्य गृहमंत्री विजय शर्मा बार बार नक्सलियों से बातचीत की पेशकश करते रहते हैं। सोचने वाली बात ये है कि अगर एंटी नक्सल ऑपरेशंस में और तेजी लाई जाती है, जैसा कि तय है लाई जा रही है, अबूझमाड़ में सेना का ट्रेनिंग कैंप खोले जाने की बात पर मुहर लग चुकी है और सुरक्षा बलों का पहला कैंप खुल चुका है।
तो जब एंटी नक्सल ऑपरेशंस में जवानों की तरफ से नक्सलियों पर हमले बढ़ाए जाएंगे और ज़रूरत पड़ने पर यदि ड्रोन से हमले किए जाएंगे, एक वक्त के बाद नक्सल संगठन ऐसी स्थिति में आ जाएगा जहां वह ख़ुद को ही हार स्वीकारने की स्थिति में पाएगा और आत्मसमर्पण के लिए चिंतन करेगा तो क्या कमज़ोर नक्सलियों की कोई भी शर्त मानने के लिए सरकार तैयार खड़ी मिलेगी ? जैसी कि आज सरकार तैयार खड़ी है?
ऐसी हत्याओं से दो बार नक्सलियों के खिलाफ जनाक्रोश पनपा था और खत्म भी हो गया लेकिन क्या ये मुमकिन नहीं है कि इस तरह की हत्याओं से भले ही किसी क्षेत्र विशेष या किसी गांव के लोग या कोई एक व्यक्ति ही सच में मुखबिर बन जाए? भारत की वर्तमान व्यवस्था में करोड़ों लोगों का विश्वास लोकतांत्रिक परिभाषा में आस्था रखता है जबकि माओ का विश्वास बंदूक की गोली से सत्ता की कुर्सी भेदने की बात करता है तो क्या यह सलाह ज़्यादा सही नहीं है कि माओवादी संगठन को अपने विचारधारा से हत्याओं के शब्द और अध्याय ही हटा दिए जाने चाहिए और सशर्त, एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी बनकर अपने विचार और योजनाओं से भारत के नागरिकों को अवगत कराना चाहिए? उम्मीद है कि माओवादी संगठन विस्तार न्यूज़ के इस लेख में छपे बहुत कम प्रश्नों पर गंभीरता से अमल करे तो उसे मुखबिर के बदले वोटबैंक मिल सके ।